देश में 2.5 लाख लोग गुर्दे संबंधी बीमारी से मौत के मुंह में चले जाते हैं। बीमारी के आखिरी चरण में डायलिसिस या गुर्दा प्रत्यारोपण का विकल्प बचता है जो बहुत खर्चीला है। यह कृत्रिम गुर्दा अपेक्षाकृत सस्ता होगा। उम्मीद है कि 2020 तक कृत्रिम गुर्दो की उपलब्धता बाजार में होगी।
गुर्दे (किडनी) के मरीजों को नया जीवन देने और डायलिसिस की पीड़ा को कम करने के लिए वैज्ञानिक अब कृत्रिम गुर्दे के विकास पर लगे हुए हैं। सब कुछ ठीक रहा तो घुटनों के प्रत्यारोपण की तरह कृत्रिम गुर्दा ट्रांसप्लांट जल्द शुरू होगा। तीन चरणों में बंटे इस प्रोजेक्ट में वैज्ञानिक दूसरे चरण में पहुंच गए हैं।
■ घुटनों के प्रत्यारोपण की तरह ट्रांसप्लांट होगा संभव
■ देश में दिन प्रतिदिन बढ़ रही मरीजों की संख्या
लखनऊ स्थित बाबा साहब भीम राव अंबेडकर विवि के प्राणि विज्ञान विभाग के प्रयोगशाला में कृत्रिम गुर्दे पर अध्ययन चल रहा है। अंबेडकर विवि के कुलपति प्रो.आरसी सोबती के अनुसार यह प्रयोग मृत जानवर (भैंस-बकरी) के शरीर के अंगों में किया जा रहा है। मनुष्य की जीवित कोशिकाओं को मृत जानवर के शरीर में प्रविष्ट कर उसे निर्धारित तापमान एवं अवधि तक विशेष यंत्र में रखा गया है। प्रथम चरण में गुर्दे का बाहरी आवरण तैयार कर लिया गया है। दूसरे चरण में फिल्टर (अपशिष्ट उत्पादों और विषैले कचरे को निकालने वाली नलिकाओं) बनाने की प्रक्रिया चल रही है। तीसरे चरण में मानव शरीर के अनुरूप इसे प्रारूप देने का कार्य किया जाएगा।
यहां इलाहाबाद विवि से संघटक महाविद्यालय एसएस खन्ना डिग्री कालेज में आयोजित एक सेमिनार में आए प्रो. सोबती ने बताया कि देश में गुर्दे के मरीजों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ रही है। गुर्दा फेल होने की स्थिति में उन्हें अस्पताल में डायलिसिस कराना पड़ता है। पूर्ण रूप से इलाज के लिए गुर्दा प्रत्यारोपण की आवश्यकता पड़ती है। मांग की अपेक्षा गुर्दा की आपूर्ति कम होने से प्रति वर्ष कई मरीज काल के गाल में समा जाते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि जिस प्रकार देश में कृत्रिम घुटनों का प्रयोग पूरी तरह सफल रहा उसी प्रकार कृत्रिम गुर्दे भी आम लोगों को नया जीवन देने में सफल होंगे।